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सल्लेखना
[ ३५५ सब उपायों की मनाई कर दी गई है। जब कोई ऐसी असाध्य बीमारी हो जाय कि उसके कष्टों का सहन करना कठिन हो, उसके मारे हम दूसरों की सेवा भी न कर सकते हों, बल्कि दूसरों से अधिक सेवा लेनी पड़ती हो, उस समय उपवास करके शरीर छोड़ना चाहिये। जल में डूबने आदि उपायों की सस्त मनाई है। और उपवास का विधान भी एकदम नहीं है; किन्तु प्रारम्भ में नीरस भोजन करना चाहिये, बाद में अन्न त्याग करना चाहिये, बाद में छाछ वगैरह किसी पेय वस्तु के आधार पर रहना चाहिये, इसके बाद शुद्ध जल के आधार पर रहना चाहिये, इसके बाद पूर्ण उपवास का विधान है या सिर्फ जल के आधार पर रह सकता है। इस प्रक्रिया से दिनों, महिनों और वर्षों का समय लग जाता है । एकदम प्राण त्याग करने में जो संक्लेश अपने को और दूसरों को होता है, वह इस प्रक्रिया में नहीं होता । इसके अतिरिक्त यह प्रक्रिया मरण का ही नहीं, जीवन का भी उपाय है । इस प्रकार का भोजन-त्याग कभी कभी असाध्य बीमारियों तक को दूर कर देता है। अगर भोजन-त्याग से बीमारी शांत हो जावे और जिन कारणों से सल्लेखना की थी, वे कारण हट जावें तो सल्लेखना बन्द कर देना चाहिये । इस प्रकार के संशोधन से सल्लेखना की उपयोगिता और भी अधिक बढ़ जायगी।
आत्महत्या और सलेखना में जमीन-आसमान का अन्तर है । आत्म-हत्या किसी कषाय के आवेग का परिणाम है, जब कि सल्लेखना त्याग और दया का परिणाम है । जहाँ अपने जीवन की कुछ भी उपयोगिता न रह गई हो, और दूसरों को व्यर्थ कष्ट