Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

View full book text
Previous | Next

Page 342
________________ ३३४ ] जैनधर्म-मीमांसा आजकल वैसे विधानों का कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि एक तो उनकी नींव अन्धश्रद्धा पर खड़ी हुई है, दूसरे उसकी कोई उपयोगिता सिद्ध नहीं होती है। किसी देवता को खुश करने के लिहाज से मर जाना अन्धश्रद्धा का भयंकर परिणाम है, क्यों कि न तो कोई ऐसा देवता है और न उसे इस प्रकार से खुश करने की ज़रूरत है। हाँ, कर्तव्य की वेदी पर बलिदान करना ही सच्चा बलिदान है। समाज की रक्षा के लिये जान लड़ा देना, दूसरों की सेवा में शरीर देना पड़े तो देना आदि ही सच्चा बलिदान है । अमुक जगह मरने से या अमुक का नाम लेकर मरने से या मोक्ष मिल जायगा, इस प्रकार की अन्धवासना से प्राण देने का कोई फल नहीं है । वह एक प्रकार की आत्महत्या ही है। अपनी और जगत् की भलाई की दृष्टि से जब प्राणोत्सर्ग करना, अधिक कल्याणकारी मालूम हो तभी प्राणोत्सर्ग करना चाहिये । पुराने समय की प्राणोत्सर्ग किया. इतनी विकृत और दुर्बसनापूर्ण थी कि वह एक प्रकार से नामशेष ही हो गई या अन्धश्रद्धालुओं के लिये बच रही । धार्मिक उपयोगिता की दृष्टि से उसका कुछ मूल्य न रहा; किन्तु जैनधर्म ने उसका इतना अधिक संशोधन किया है कि वह शो हुए वित्र की तरह औषध का रूप धारण कर गई है । आज उसमें थोड़े बहुत संशोधन की आवश्यकता और हो गई है; उस संशोधन के बाद वह आज भी उपयोगी है । जैनधर्म ने जो इस विषय में संशोधन किया है, उसमें सबसे बड़ा संशोधन यह है कि उपवास को छोड़कर मृत्यु के अन्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377