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[जैनधर्म-मीमांसा उठाना पड़ता हो, वहाँ शरीर-त्याग में दूसरों पर दया है।
प्रश्न-जिन रोगों को बड़े बड़े वैध असाध्य कह देते हैं, उनसे भी मनुष्य की रक्षा हो जाती है । क्षणभर बाद क्या होने वाला है, इसको पूर्ण निश्चय के साथ कीन कह सकता है ? इसलिये मृत्यु का भी पूर्ण निश्चय कैसे होगा ? और पूर्ण निश्चय के बिना सल्लेखना लेना उचित नहीं कहा जा सकता । वह तो आत्मवध हो जायगी।
उत्तर-मनुष्य के पास निश्चय करने के जितने साधन हैं उन सबका उपयोग करने पर जो निर्णय हो, उसी के आधार पर काम करना चाहिये । अन्यथा मनुष्य को बिलकुल अकर्मण्य हो जाना पड़ेगा । जीवन के वह सारे काम अपने ज्ञान से करता है। यह काम भी उसे इसी तरह करना चाहिये । हाँ, उसके भीतर किसी प्रकार का कषायावेष न हो, शुद्ध बुद्धि से विचार करे, इस प्रकार का तथा निम्नलिखित चार बातों का विचार करके सल्लेखना स्वीकार करे लोक-लजा आदि से सल्लेखना न ले और न किसी को ज़बर्दस्ती सल्लेखना दे।
क-रोग अथवा और कोई आपत्ति असाध्य हो। ख-सबने रोगी के जीवन की आशा छोड़ दी हो। ग-प्राणी स्वयं प्राण त्याग करने को तैयार हो। घ-जीवन की अपेक्षा जीवन का त्याग ही उसके लिये
श्रेयस्कर सिद्ध होता हो। इसके अतिरिक्त और बातें भी विचारणीय हो सकती है