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________________ ३३६] [जैनधर्म-मीमांसा उठाना पड़ता हो, वहाँ शरीर-त्याग में दूसरों पर दया है। प्रश्न-जिन रोगों को बड़े बड़े वैध असाध्य कह देते हैं, उनसे भी मनुष्य की रक्षा हो जाती है । क्षणभर बाद क्या होने वाला है, इसको पूर्ण निश्चय के साथ कीन कह सकता है ? इसलिये मृत्यु का भी पूर्ण निश्चय कैसे होगा ? और पूर्ण निश्चय के बिना सल्लेखना लेना उचित नहीं कहा जा सकता । वह तो आत्मवध हो जायगी। उत्तर-मनुष्य के पास निश्चय करने के जितने साधन हैं उन सबका उपयोग करने पर जो निर्णय हो, उसी के आधार पर काम करना चाहिये । अन्यथा मनुष्य को बिलकुल अकर्मण्य हो जाना पड़ेगा । जीवन के वह सारे काम अपने ज्ञान से करता है। यह काम भी उसे इसी तरह करना चाहिये । हाँ, उसके भीतर किसी प्रकार का कषायावेष न हो, शुद्ध बुद्धि से विचार करे, इस प्रकार का तथा निम्नलिखित चार बातों का विचार करके सल्लेखना स्वीकार करे लोक-लजा आदि से सल्लेखना न ले और न किसी को ज़बर्दस्ती सल्लेखना दे। क-रोग अथवा और कोई आपत्ति असाध्य हो। ख-सबने रोगी के जीवन की आशा छोड़ दी हो। ग-प्राणी स्वयं प्राण त्याग करने को तैयार हो। घ-जीवन की अपेक्षा जीवन का त्याग ही उसके लिये श्रेयस्कर सिद्ध होता हो। इसके अतिरिक्त और बातें भी विचारणीय हो सकती है
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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