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गृहस्थों के मूलगुण ]
[ ३२७ हो जावे । ऐसे देशों के लिये इस मूलगुण का नाम मद्यत्याग के स्थान पर मद्य-मर्यादा होगा।
मूलगुणों में जिन-जिन नियमों में अपवाद बताया गया है या छूट दी गई है, वहाँ पर यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि वह छूट या अपवाद व्यसन का रूप न पकड़ ले । जीवन के लिये जो कार्य आवश्यक नहीं हैं, फिर भी जो पाप-कार्य इस प्रकार आदत का रूप पकड़ लेते हैं कि जिसके बिना बेचैनी का अनुभव होने लगता है, उसे व्यसन कहते हैं। इस प्रकार के दुर्व्य
सनों का मूलगुणी को त्यागी होना चाहिये। ५. जैनशास्त्रों में जुआ, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी, पर
बा के विषय को लेकर सात व्यसन बताये गये है। व्यसनों की संख्या कितनी भी हो, उसका सार वही है जो ऊपर कहा जा चुका है । स्पष्टता के लिये सात की गणना कर दी गई, यह ठीक है । मूलगुणी को इनका त्यागी होना चाहिये । हाँ, 'जुआ' शब्द के स्पष्टीकरण में यह कह देना उचिन मालूम होता है कि हार-जीत की कल्पना से ही जुआ नहीं हो जाता, किन्तु जब जुआ धन-पैसे से खेला जाता है तब जुआ कहलाता है । अन्यथा स्वास्थ्य, शिक्षा आदि विषयों की अच्छी प्रतियोगिताएँ भी जुआ कहलाने लगेगी अथवा मनोविनोद के लिये कोई खेल भी जुआ कहलाने लगेगा। 'जुआ' शब्द का इतना व्यापक अर्थ करना ठीक नहीं है, क्योंकि जुआ की जो विशेष हानियाँ हैं वे उपर्युक्त प्रतियोगिताओं या खेलों में नहीं पाई जाती।
वर्तपान परिस्थिति के अनुसार ये आठ मलगुण बताये गये