Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 328
________________ ३२० [ जैनधर्म-मीमांसा आ जाती है कि स्वास्थ्य की रक्षा रखना भी धर्म की रक्षा करना है । निरोगी मनुष्य अपनी और जगत् की सेवा करता है, यही तो धर्म है। ___ जिस वस्तु का सेवन शिष्ट सम्मत नहीं है, घृणित है, वह अनुपसेव्य है। इस प्रकार उपभोग-परिभोग-परिमाण या भोगोपभोग परिमाण नामक शील का पालन करना चाहिये। प्रश्न--भोगापभोगपरिमाण को शील में क्या रखा ? इसे तो अपरिग्रह के स्थान पर मूल-व्रत बनाना चाहिये था; क्योंकि भौगोपभोग ही सारे अनर्थों की जड़ है। समाधान--अधिक भोगोपभोग और अधिक परिग्रह ये दोनों ही पाप हैं, परन्तु अधिक परिग्रह बड़ा पाप है ! जगत में जो बेकारी फैती है, तथा दूसरों को भूखों मरना पड़ता है, तथा मनुष्य अधिक पाप करता है-उसका कारण परिग्रह का संचय है। इसका विशेष विवेचन अपरिग्रह के प्रकरण में किया गया है। अतिथि विभाग- सद्गुणी तथा समाजसेवी मनुष्यों को स्थान भोजन आदि देना अतिथिसंविभाग है । त्याग-धर्म के वर्णन में इसका विशेष विवेचन हो चुका है। यहाँ किसी भी प्रकार की अनुचित संकुचितता से काम न लेना चाहिये । आचार्य समन्तभद्र ने इसका नाम वैयावृत्य रक्खा है, और उसका अर्थ भी व्यापक किया है। उसका भी यथायोग्य समावेश कर लेना चाहिये। वर्तमान युग में निम्नलिखित सात शीला की या शिक्षातों की

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