Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 331
________________ गृहस्थों के मूलगुण] [३२३ छानकर पीना। -आशाधर * कालक्रम से इन मतों का उल्लेख यहाँ किया गया है । अन्य आचार्यों ने भी इन मतों का उल्लेख किया है, तथा और भी इस विषय में मत होंगे। मैं पहिले कह चुका हूँ कि चारित्र के नियम द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव के अनुसार होते हैं । हरएक धर्म के नियम इस बात की साक्षी देते हैं । जैनधर्म में भी यह बात पाई जाती है । मलगुणों की विविधता भी इस बात का एक प्रमाण है | अपने अपने समय के अनुसार बनने वाले चार नियम ऊपर बताये गये हैं, परन्तु आज के लिये वे सब पुराने हैं, इसलिये वर्तमान देश-काल के अनुसार नये मूलगुण बनाना चाहिये। मलगुणों के विषय में इतना और समझना चाहिये कि ये वती होने की कम से कम शर्त के रूप में हैं । ये जैनत्व की शर्त नहीं हैं; क्योंकि अष्टमूलगुणों का पालन किये बिना भी कोई जैनी बन सकता है, जिसे कि अविरत- सम्यग्दृष्टि कहते हैं । हाँ, मूलगुणों में से कुछ ऐसी बातें चुनी जा सकती है, जो जैनत्व की शर्त के रूप में रक्खी जा सकें । खर, आजकल मूलगुण निम्नलिखित होना चाहिये १ सर्वधर्म-समभाव, २ सर्व जाति-समभाव, ३ सुधारकता (विवेक), ४ प्रार्थना, ५ शील, ६ दान, ७ मांसत्याग, ८ मद्यत्याग । (१) सर्वधर्म-समभाव का दूसरा नाम स्याद्वादिता है । किसी * मद्यपलमधु निशाशन पंचफली विरतिपंचकातनुती । जीवदया जलगालन मिति च कचिदष्ट मूलगुणाः । -

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