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दशधर्म )
[२६१ एकान्त की आवश्यकता हो तो कोई हानि नहीं है | किसी ख़ास • कार्य के लिये साधन के रूप में विविक्तता या अविविक्तता की इच्छा करना बुरा नहीं है, परन्तु साधारण हालत में उसे इस विषय में समभावी होना चाहिये ।
कायक्लेश-शारीरिक कष्टों को सहन करना भी एक तप है । कभी कोई शारीरिक कष्ट आ पड़े तो उस समय हम उसे सहन कर सकें, समभाव रख सकें, इसके लिये यह तप है-एक समय यह साम्प्रदायिक प्रभावना के लिये भी था, परन्तु आज यह प्रभावना के लिये नहीं है, बल्कि अप्रभावना के लिये है। कोरी प्रभावना के लिये तप करना कुतप है।
जैनधर्म ने ऐसे तपों का विरोध किया है। पंचाग्नि तपना, शीत ऋतु में पानी में खड़े होना-आदि कुतप माने गये हैं। परन्तु उस जमाने में बाह्य-तप का इतना प्रभाव था कि जैनाचार्यों को भी बाह्य-तप का विरोध करना कठिन था, इसलिये उनने इसका विरोध दूसरे ढङ्ग से किया । जैसे-अग्नि जलाने में हिंसा होती है. इसलिये पंचाग्नि तप नहीं तपना चाहिये आदि । परन्तु असली बात तो यह है कि ऐसे बाह्य-तप करने की ज़रूरत नहीं है, जो सिर्फ सर्कस के खेल की तरह लोगों को आश्चर्यचकित करने के लिये हैं । समय के असर के कारण तथा लोकाकर्षण के कारण कुछ
जैनाचार्यों ने इसे प्रभावना के लिये भी लिख दिया है, परन्तु यह दिशा ठीक नहीं है । वास्तव में उसकी उपयोगिता सिर्फ कष्टसहि
देह दुःख तितिक्षासुखानामिप्नंग प्रवचनप्रभावनायर्थ ।
-त. रा.ब.०७-१९-१४॥