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जिनधर्म-मीमांसा ध्यान के चार भेद हैं आतथ्यान, ध्यान, धर्मथ्यान और शुक्लध्यान . पहले के दो ध्यान बुरे हैं, संसार अर्थात् दुःख के कारण है। पिछले दोनों अच्छे हैं, मोक्ष के अर्थात् सुख के कारण है।
वार्तध्यान में पीड़ा होती है : दुःख हर जो ध्यान है का आर्तध्यान है । किसी प्रिय वस्तु के वियोग होने पर (इष्टवियोग ) या अप्रिय वस्तु के मिलने पर (अनिष्टसंयोग, या बीमारी वगैरह से (वेदना) अथवा भविष्य में विषय भोग की आकांक्षा से (निदान) जो ध्यान होता है वह आतथ्यान है। .
शा--प्रारम्भ के तीन आर्तध्यान इसलिये अशुभ कहे जा सकते हैं कि उनमें कायरता है इसलिये दुःखों पर विजय प्राप्त करने में बाधा उपस्थित होती है । सहिष्णुता का अभाव होने से थोड़ा दुःख भी बहुत मालूम होता है परन्तु निदान क्यों बुरा है ! यह तो आप ही कहते है कि धर्म सुख के लिये है इसलिये अगर कोई सुख के साधनों की आकांक्षा करे तो इसमें बुरा क्या है ?
समाधान-सुख के साधनों को आश करना बुरा नहीं है, परन्तु निदान में असली सुखको आकांक्षा न करके, नकली मुम्बकी आकांक्षा की जाती है । प्रथम अध्याय में मुखका जो स्वरूप बताया गया से मुखकी आकांक्षा करना बुग नहीं, क्योंकि यह मुख समष्टिकी उमति के साथ होता है। परन्तु निदान में ऐसे मुखाभास की आकांक्षा की जाती है जो इसरों के दलका तथा अनेक अनयों का कारण है । इसलिये निदान गाण्यान है, अशुभ है। जो मनुष्य समाज को सुखी करने के साथ अपने को मुखा करना चाहता है अर्थात ऐसी आकांक्षा करता है उसके निदान