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गृहस्थधर्म ]
विरति को गुणव्रत नहीं माना है ।
की
सम्भव है कि आचार्य उमास्वाति ने गुणव्रत और शिक्षा-व्रत का भेद किसी दूसरी दृष्टि से क्रिया हो । परन्तु वह दृष्टि उल्लिखित नहीं है । सम्भव है कि उनके ये विचार हों कि दिग्विरति और देशविरति एक ही ढंग के व्रत हैं, इसलिये उनको एक ही श्रेणी में रखना चाहिये। दूसरी बात यह भी कही जा सकती है कि देशविरति में कोई ऐसी क्रिया नहीं है जो संयम के साथ खास सम्बन्ध रखती हो । अणुव्रती दृष्टि से देश की मर्यादा भले ही उपयोगी हो सकती हो, परन्तु महाव्रती के लिये उसकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह मर्यादा के बाहर भी पाप नहीं करता तथा समस्त नरलोक में भ्रमण कर सकता है, इसलिये भी देशविरति, संयम की शिक्षा के लिये उपयोगी नहीं मालूम होती । दिग्निरति, देशविरति, अनर्थदंडविरति ये तीनों ही व्रत विरतिप्रधान अर्थात् निषेधप्रधान हैं । इनमें किसी विधायक कार्यक्रम की मुख्यता नहीं मालुम होती, इसलिये भी आचार्य उमाखाति को इन्हें एक ही श्रेणी में रखना पड़ा हो ।
दूसरा मत जिसका उल्लेख आचार्य समन्तभद्र आदि ने किया है, उसमें देश और उपभोगपरिभोगपरिमाण में परिवर्तन हुआ है, अर्थात् देशगत शिक्षामत में शामिल है और उपभोगपरिभोगपरिमाण, भोगोपभोगपरिमाण नाम से गुणवत में शामिल है। इसके अतिरिक्त थोड़ा-सा भेद यह भी है कि आचार्य समन्तभद्र ने अतिथिसंविभाग को वैमावृत्य का नाम देकर इसकी
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