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[ जैनधर्म-मीमांसा सांगारधर्मामृत टीका में शिक्षाबत की एक और परिभाषा - दी गई है कि विशेष श्रुतज्ञान की भावनारूप परिणति जिनमें होती है वे शिक्षाबत हैं। देशावकाशिक आदि में विशिष्ट श्रुतज्ञान की भावना की आवश्यकता होती है । परन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि देशावकाशिक की अपेक्षा अनर्थदण्डविरति में श्रतज्ञान की भावना अधिक अपेक्षित है । तब उसे गुणवत क्यों माना जाय ! प्रोषधोपवास में बल्कि उससे कम अपेक्षित है, तब से गुणव्रत में क्यों न रक्खा जाय ! इसलिये यह भेद भी ठीक नहीं है।
सच तो यह है कि गुणव्रत और शिक्षाव्रत-यह भेद ही कुछ निरर्थक-सा मालूम होता है। सभी का नाम शिक्षाव्रत होना चाहिये। वेताम्बर आगमों में जब किसी श्रावक के बारह व्रत लेने का उल्लेख आता है तब वह यही कहता है कि मैं पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाबत लेता हूँ। वह तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत नहीं बोलता; यद्यपि पछि के श्वेताम्बर-साहित्य में गुणवत और शिक्षाबत का भेद मिलता है । इससे मालूम होता है कि गुणव्रत शिक्षा व्रत का भेद पीछे से आया है। परन्तु आकर के भी वह ठीक ठीक नहीं बन सका।
खैर, यहाँ इनकी गहरी मीमांसा करने की ज़रूरत नहीं रह
* शिक्षाप्रधानं व्रतं शिक्षाप्रतं ! देशावकाशिकादेविशिष्ट श्रुतमानमावनाप रिणतत्वेनच निर्वायत्वात् । ४.४१
* अहं णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए पंचाणुव्वइयं सत सिलाववायं दुवालसविहं गिहिथम्म पारिवास्जिस्सामि।
-उवासगदसा १-१२ ।