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(जैनधर्म-मीमांसा व्याख्या कुछ व्यापक कर दी है। इसमें और भी अनेक प्रकार की . सेवा का समावेश कर दिया गया है ।
इस विषय में तीसरा मत आचार्य कुंद-कुंद आदि का है उनके गुणवत तो आचार्य समन्तभद्र के समान हैं, परन्तु शिक्षाबतों में देशावकाशिक के स्थान पर सल्लेखना का नाम है। इनके मतानुसार देशात्रकाशिक अर्थात् देशविरति को न गुणव्रत में स्थान है न शिक्षाबत में, और सल्लेखना नामक नया ब्रत आया है । यद्यपि सल्लेखना का उल्लेख अन्य आचार्यों ने भी किया है, परन्तु इसको वारह व्रतों से बाहर रखा है। इसका कारण यह है कि यह व्रत गृहस्थों के लिये ही नहीं किन्तु साधुओं के लिये भी है, तथा मरते समय ही इसकी उपयोगिता है-साधारण जीवन में इसका कुछ उपयोग नहीं है।
आचार्य वमुनन्दी ने शिक्षातों को सबसे भिन्न रूप दिया है। उनने भोगोपभोगपरिमाण ब्रत के दो टुकड़े करके उनको दी बत बना दिया है-भोगविरति और परिभोगविरति । फिर अतिथिसंविभाग और सल्लेखना को लेकर चार शिक्षाबना कर दिये हैं। सामायिक और प्रोषधोपवासबत का तो बहिष्कार ही कर दिया है।
न केवलम् दानमेव वैयावृत्यमुच्यते आपतु-व्यानिध्यपनोदः पदया: संवाहन च गुणरागात् । वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपिसं यामिनाम् । ४.२१ ।
| লঙ্কাকাবা। • सामाइयं च पदम विदियं च तहेव पोसहं भणियं तस्यं च अतिहिपुर्ज चउत्थ सहेहणा अन्ते । चारित्र प्राभूत २५ ।
तमोय विरह माणमं पटमंसिक्वावयं सके। "तं परिमोयाणिवृत्ति विदितं ...। पटेखणंच उत्थं ..... |
-वमनदीश्रावकाचार