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(जैनधर्म-मीमांसा रहती है, इसलिये उसे मर्यादा के बाहर उपचार से महावती* भी कह दिया है । यद्यपि साथ में यह बात भी कह दी है कि उसमें महाव्रती के समान मन्दकषायता न होने से वह वास्तव में महावती नहीं है, फिर भी उपचरित महाव्रत कहना भी कम महत्व की बात नहीं है।
श्रमण संस्कृति के अनुसार निवृत्ति मार्ग का अभ्यास कराने के लिये इस व्रत की थोड़ी-सी उपयोगिता थी, परन्तु वास्तविक उपयोगिता नहीं के बराबर है । एक मनुष्य हिमालय के उस पार
अगर हिंसा न करे और देश के भीतर सब कुछ करे, इसलिये वह व्रती नहीं हो जाता-पाप का क्षेत्र कम हो जाने से पाप कम नहीं हो जाता । माना कि इस व्रत के पहिले मनुष्य को अगुवती होना आवश्यक है, परन्तु अणुव्रती रहकर भी मनुष्य जितना पाप मर्यादा के बाहर कर सकता है, उतना मर्यादित क्षेत्र में भी कर सकता है। इसलिये इस व्रत को व्रत-रूप न मानना चाहिये । बल्कि आजकल तो इससे नुकसान ही है, क्योंकि आज सारी पृथ्वी एक बाज़ार या गांव के समान हो गई है । यातायात के इतने साधन बढ़ गये है, साक्षात् या परम्पग-रूप में हमारा जीवन सारी पृथ्वी के साथ इस तरह गुंथ गया है कि हमारा सबसे असम्बद्ध होकर रहना अशक्य. प्राय हो गया है । हमें सेवा के लिये, विकास के लिये, सीमा के
* अवहिरशुपाप प्रति विरतदिग्वतानि धारयताम् । पञ्च महाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते । २४ । प्रत्याख्यानतनुत्वान्मन्दतावरण माह परिणामाः । सत्वेन दुरवधारा: महावताय प्रपद्यन्ते । २५ ।
-लकरण्ड श्रावकाचार