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[ जैनधर्म मीमांसा
पीछे के दोनों शुक्लध्यान अहंत के ही माने जाते हैं । इन ध्यानों के लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता । प्रत्येक अहन्त के जीवन के अन्त समय में ये आप से आप होते हैं।
पान की व्यावहारिक उपयोगिता भी बहुत है । इससे किसी विषय पर विचार किया जा सकता है, इससे ज्ञान की वृद्धि यो प्राप्ति होती है, दुःखों को भुलाया जाता है, अपने आप में पूर्ण बना जाता है।
इस प्रकार ये अन्तरङ्ग तप हैं । बहिरङ्ग तप की अपेक्षा अन्तरङ्ग तपों पर अधिक जोर देना चाहिये । बहिरङ्ग तप वास्तव में तप नहीं है किन्तु वास्तविक तप के लिये एक साधन मात्र हैं । , त्याग-आठवा धर्म त्याग है । त्याग शब्द का व्यापक अर्थ किया जाय तब तो इसमें बहुत से धर्मों का समावेश किया जा संकता है परन्तु यहाँ पर उसका अर्थ दान है । पहिले अध्याय में कहा जा चुका है कि समाज की उन्नति में अपनी उनति है। अगर हम समाज को पतित अवस्था में छोड़कर उन्न। बनाना चाहें तो हमें असफल होना पड़ेगा अथवा इमें जितनी सफलता मिलना चाहिये उतनी सफलता न मिलेगी । द न के द्वारा हम दोनों का कुछ समीकरण करते हैं। दूसरों को उन्नत बनाकर हम यातावरण को कुछ स्वच्छ बनाते हैं जिससे हमें भी श्वास लेने में कष्ट न हो। इस प्रकार दान जितना परोपकारक है उतना ही स्त्रोपकारक है।.
जैन शाखों में दान के चार भेद किये गये है। आहार दान, आषधदाम शानदान (ज्ञान दान) और अभयदान,