________________
२९० ]
[जैनधर्म-मीमांसा
1
अन्वयदान - अपनी सम्पत्तिका किसी या किन्हीं उत्तराधिकारियों को सौंपना अन्वयदान है | बहुत से लोग शायद इसे दान न मानेंगे, परन्तु यह भी एक दान है । हमारे मर जाने पर हमारे उत्तराधिकारी जो हमारी सम्पत्ति के स्वामी हो जाते हैं-वह दान नहीं है । दान वही है कि अपने जीते जी अपनी सम्पत्ति का यथायोग्य वितरण कर देना, तथा वानप्रस्थ होकर अपना स्थान दूसरों को खाली कर देना तथा अपने हाथ में ऐसे काम ले लेना जो समाज की उन्नति तथा प्रगति के लिये उपयोगी हैं, किन्तु आर्थिक बेकारी नहीं फैलाते । जीवन के अंतिम भाग में सेवा और शान्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये । कर्मयोगी बनकर विश्वमात्र की सेवा के लिये कर्मशील बनना उचित है । अन्वय-दान इस क्रिया बहुत सहायक है |
I
1
दान की यहाँ दिशा-मात्र बतला दी गई है । इससे दान के विषय में पर्याप्त विचार किया जा सकेगा । हाँ, एक बात ध्यान में रखना चाहिये कि दान ऐच्छिक धर्म नहीं है, किन्तु अनिवार्य है । सम्पत्ति होने पर अगर दान न किया जाय, उसकी कैद करके रख लिया जाय तो इसमें समाज का दोह है, परिग्रह पाप है । अपरिग्रह के प्रकरण में भी इस विषय पर पर्याप्त विचार किया
गया है ।
सम्पत्ति एक न एक दिन टूटनेवाली तो अवश्य है । भले ही वह ऐसे आदमी को मिले जिसे हम अपना पुत्र कहते हैं, परन्तु आखिर वह भी तो समाज का ही एक अङ्ग है। शायद हम यह समझें कि उसे सम्पत्ति देने से नाम चलेगा; परन्तु इसका