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दशधर्म 1
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भरोसा क्या है ? दूसरी बात यह है कि अगर सम्पत्ति से नाम चल सकता है तो उसका उपयोग जीवन में ही क्यों न किया जाय - जिससे यश का आनन्द अपने को मिल सके ! तीसरी बात यह है कि अपने मरने के पीछे उत्तराधिकारी सम्पत्ति ले ले और उससे किसी का जितना नाम हो सकता है उससे हज़ार गुणा नाम उसका होता है - जो समाज के लिये सम्पत्ति दे जाता है । यहाँ सन्तान को भिक्षुक बना देने की बात नहीं है । सन्तान का पालन, रक्षण, उन्नति आदि भी समाज का कान है । परन्तु सभी तरफ समतोलता रहे - इसके लिये एक तरफ जोर दिया गया है । इस प्रकार दान, यश की दृष्टि से तथा समाज हित की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। यह परमार्थ भी है और स्वार्थ भी हैं ।
आर्किचिन्य - अर्थात अपना कुछ न समझना । अपरिग्रहव्रत के लिये, शौच और दान के लिये यह उत्तेजक है | अपने की स्वानी नहीं, किन्तु दृस्टी, रक्षक मानने में निराकुलता भी है तथा समाज हित भी है ।
ब्रह्मचर्य - - इसका विवेचन पहिले विस्तार से किया गया है। परिवह विजय
मुनि या संयमी मनुष्य को परिवह विजय करना चाहिये, अन्यथा वह संयम का पूर्ण रूप से पान नहीं कर सकता ह
संयम से गिर पड़ेगा | इसके लिये बाईस परिषदों को जीतने का उल्लेख है । मैं पहिले मुनियों के ग्यारह मूल-गुणों का उल्लेख कर आया हूँ । उनमें एक कष्ट सहिष्णुता भी है | परिषदों का