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[जैनधर्म-मीमांसा
यथाशक्ति विजय करना इसी मूल-गुण में शामिल है । स्वास्थ्य वगैरह को सम्हालने की जो बातें कष्ट-सहिष्णुता के वर्णन में कही गई हैं, उनका यहाँ भी ध्यान रखना चाहिये । हाँ, योग्य कर्त्तव्य के लिये स्वास्थ्य का क्या, जीवन का भी बलिदान करना पड़ता है ।
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यद्यपि यहाँ परिवह-विजय पर कुछ लिखने की जरूरत नहीं थी, परन्तु कुछ परिपहों पर जुदे जुदे दृष्टि-बिन्दुओं से विचार करना है, इसीलिये यहाँ कुछ लिखा जाता है । परियहें बाईस हैं । उनका अर्थ उनके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है । यह भी आवश्यक नहीं है कि वे बाईस ही मानी जायँ । आवश्यकता होने पर उनमें न्यूनाधिकता भी हो सकती है। उनके नाम ये हैं:
क्षुधा (भूख), पिपासा (प्यास), शीत, उष्ण, दंशमशक (डॉस, मच्छर, बिच्छू, सर्प आदि), नग्नता, स्त्री, चर्या ( चलने का कष्ट), निषद्या ( एक जगह आसन लगाने का कष्ट ), शय्या ( मोने का कष्ट, कटोर ज़मीन में सोना पड़े आदि), आकोश ( गालियाँ वगैरह सहना पड़े ), वध ( मारपीट सहना पड़े ), याचना, अलाभ ( भिक्षा वगैरह न मिले ), रोग, तृणस्पर्श (कंटक वगेरह ), सत्कारपुरस्कार (मानापमान ), प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन इनमें से कुछ परिषहों पर विशेष सूचना करने की ज़रूरत है ।
नग्नता इस विषय में मूल-गुणों की आलोचना करते समय लिख दिया गया है । यहाँ सिर्फ इतना सम्झना चाहिये कि परिषहों में नग्नता के उल्लेख से इतना तो मान्न होता है कि जैन सम्प्रदाय में नग्नता प्राचीन है, अर्थात् महात्मा महावीर के ज़माने से