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परिषह - विजय ]
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याचना - परिषह का विजय है । दोनों सम्प्रदायों के मुनियों की भिक्षा का ढंग जुदा जुदा है । इसीलिये इस परिषद के अर्थ करने में यह गड़बड़ी पैदा हुई है । मैं लिख चुका हूँ कि भिक्षा के दोनों ढङ्ग प्राचीन हैं । पहिला ढङ्ग जिनकल्पियों का है, दूसरा ढङ्ग स्थविरकल्पियों का । आंशिक दृष्टि से दोनों ठीक हैं; फिर भी याचना-परिषद की उपयोगिता तथा वर्गीकरण की दृष्टि से पहिला अर्थ कुछ असंगत मालूम होता है । यहाँ यह बात याद रखना चाहिये कि याचना परिह का सम्बन्ध भी चारित्रमोह से है । इससे यह मालूम होता है कि उसमें किसी मानसिक - वासना पर विजय प्राप्त करना है । दिगम्बर मान्यता के अनुसार उसका सम्बन्ध चारित्रमोह से नहीं रहता; बल्कि भूख-प्यास सहने के समान असातावेदनीय से हो जाता है । यों तो हरएक परिषह में वास्तविक विजय तो मन पर ही करना पड़ती है; परन्तु कुछ का सम्बन्ध पहिले शरीर से हैं फिर मन से, जब कि कुछ का सीधा मन से ग्यारह परिषहें शारीरिक कष्टों से सम्बन्ध रखती हैं, इसलिये उनका कारण असातावेदनीय माना जाता है; और बाकी ग्यारह
घातिया कर्मों से सम्बन्ध रखती है ।
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याचना करने में लज्जा, दीनता, संकोच आदि मानसिक कष्टें | का सामना करना पड़ता है, इसलिये उनके विजय करने का
नाम्यारति स्त्रीनिषद्याक्रोशयाचना सत्कार पुरस्काराः
९- १५ सत्यार्थ ।
+ क्षुधा, तृषा, शीत, उप, दंशमशक, चर्चा, शय्या, अब, रोग, तृणस्पर्श, मळ |
* चारित्रमोहे