Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 301
________________ परिपह-विजय ] [ २९३ है । परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि यह अनिवार्य है । परिहों में जो परिषहें उपस्थित हो जायँ उन पर विजय करना चाहिये | सहन करने के लिये प्रत्येक परिपह को रखना जरूरी नहीं है । जैसे साधु प्रति समय भूखा-प्यासा आदि नहीं रहता, उसी प्रकार नग्न रहना भी जरूरी नहीं हैं। हाँ, अगर कभी नग्न रहना पड़े तो उसे विजय करने की शक्ति रखना चाहिये | कुछ लोग नग्नता के समर्थन में कहने लगते हैं कि अगर कोई मनुष्य नग्न रहकर टण्ड - गर्मी नहीं सह सकता तो वह साधु क्यों बनता है ? इसके उत्तर में पहिली बात तो यह है कष्टसहिष्णुता का सम्बन्ध सिर्फ शरीर से नहीं है - वह अनेक परिस्थितियों पर अवम्बित है | दूसरी बात यह है कि नाग्न्य परिषद का ठंड-गर्मी आदि से कोई सम्बन्ध नहीं है, किन्तु लज्जा से है । एक आदमी शीत पीड़ित होकर ताप रहा है, किन्तु नग्न है । तो हम उसे शीत-परिव-विजयों तो न कह सकेंगे, किन्तु नग्न- परिपह विजयी कह सकेंगे। इसी प्रकार लँगोटी लगाकर टंड सहनेवाला नम्न परिवजयी नहीं है, किन्तु शीतजयी है । इसीलिये इस परिवह का सम्बन्ध चारित्र मोह से रक्खा गया है, क्योंकि इससे शरीर पर नहीं, मन पर विजय प्राप्त करना है । मन पर विजय प्राप्त करके भी अगर लोगों की सुविधा के लिये नग्न न भी रहे तो भी वह नपरिवह विजयी है | " स्त्री-त्रियों की तरफ से कामुकतापूर्ण आकर्षण किया जाय तो उस आकर्षण पर विजय प्राप्त करना स्त्री-परिवह विजय है । यह परिवह तो सिर्फ़ साधुओं को ही लागू हो सकती है, न

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