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[जैनधम-मीमांसा कि साध्वियों को । परन्तु परिषह-विजय तो दोनों के लिये एक-सी आवश्यक है । तब स्त्री-परिषह के समान पुरुष-परिषह क्यों नहीं मानी जाती है इसका कारण तो सिर्फ यही मालूम होता है कि पहिले जमाने में जब साधारणतः किसी बात का उपदेश दिया जाता था तब वह विवेचन पुरुषों को लक्ष्य में लेकर किया जाता था, इसलिये उन ही को लक्ष्य लेकर यह परिषह बन गई है। दूसरा कारण यह है कि साधारणतः पुरुष जितना स्त्री की तरफ आकर्षित होता है-उतनी स्त्री पुरुष की तरफ आकर्षित नहीं होती, अथवा आकर्षित हो करके भी उसका आकर्षण प्रगट नहीं होता, इसलिये पुरुष को सम्हालने की अधिक ज़रूरत मालूम हुई । परन्तु ये दोनों कारण पर्याप्त नहीं हैं । इसलिये आज तो इस परिषह का नाम बदल देना चाहिये । स्त्री-परिपह के बदले इसका नाम "काम. परिषह" रखना चाहिये । यह स्त्री और पुरुप दोनों के लिये एक सरीखी है।
याचना-इस परिपह के अर्थ में दोनों सम्प्रदायों में मतभेद है । दिगम्बर सम्प्रदाय कहता है कि प्राण जाने पर भी दीन वचन न बोलना और न किसी से आहार वगैरह की याचना करना याचना-परिप-विजय है । याचना के रिवाज को व पाप समझने हैं * . जब कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इसे पाप नहीं माना गया है, बल्कि याचना करने में दीनता तथा अभिमान न आने देना
* अद्यावे पुनः कागदांपादीनानाथपाखंडि बहुले जगन्यमार्गक्षरनामावतिः याचनमनुष्टीयते । न० स० वार्तिक ९-९-२१ ।