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[ जैनधर्म-मीमांसा
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विशेष सम्बन्ध नहीं है | वास्तव में सदाचार से आत्मिक शान्ति और सुख मिलता है, परलोक सुधरता है, दुनियाँ की भलाई होती है और उससे मेरी भी भलाई होती है - इस प्रकार धर्म का मर्म समझकर वह केवली हो जाता है । परन्तु यह अवस्था प्रारम्भ में नहीं होती । पहिले तो मनुष्य यह समझता है कि संयम का पालन करने से सचमुच मैं यहाँ बैठे बैठे हजारों कोस की सब चीजें देखने लगूँगा, तप से आकाश में उड़ने लगूँगा, बनाना और बिगाड़ना मेरे बाएँ हाथ का खेल हो जायगा आदि । अन्त में जब उसे इनकी प्राप्ति नहीं होती और उधर वह धर्म का मर्म भी नहीं समझ पाता, तब वह व्याकुल हो जाता है वह धर्म पर अविश्वस करने लगता है ! इसका नाम है अदर्शन - परिष। जैन - शास्त्र कहते हैं कि यह परिषद दर्शन - मोह अर्थात मिथ्यात्व के उदय से होती है । बात बिलकुल सत्य है । धर्म का मर्म नहीं समझना, यह मिथ्यास्त्र तो है ही । उसी से यह परिषह होती है । इस परिषह को, विजय, करने का उपाय यही है कि धर्म का मर्म समझा जाय । उसके कार्यकारण भाव का ठीक ठीक पता लगाकर यह विश्वास किया जाय कि धर्म का फल भौतिक जानकारी तथा ऋद्धियाँ नहीं हैं, किन्तु आत्मिक ज्ञान तथा शान्ति है । इस तरह अदर्शन - परिवह विजय करना चाहिये |
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पर
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मैं पहिले कह चुका हूँ कि परिपहों की नियत संख्या बनाने की ज़रूरत नहीं है । परिषों की संख्या बदली मी जा सकती है । उदाहरणार्थ, लज्जा परिवह है । जब एक आदमी साधु हो जाता है और उसे अपने हाथ से झाडू लगाना पड़ती है, बर्तन