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दशधर्म
[२७९ , एक विचार के चार अंश हैं । आमाको कल्याणमार्ग में लगाने तथा जगत के उद्धार की अपेक्षा से धHध्य न के ये भेद किये हैं।
धर्मशास्त्र में आज्ञा का अर्थ है कर्तव्य की प्रेरणा, अथवा कल्याणोपयोगी पदायों का विधान । उसका विचार करना वह आज्ञा विषय है अर्थात् सुख के मार्ग पर विचार करना आज्ञाविचय है। प्राणियों का जो कर्तव्य है उसका अर्थात् आज्ञा का पालन न करने से वे कैसे दुराचारी, पतित, स्वाण आदि हो जाते हैं इस प्रकार का विचार अपायविचय है। इस प्रकार पतित होकर उन्हें कैसे का भोगना पड़ते हैं, इस प्रकार का विचार विपाकविचय है। "प्राणियों के इस अधःपतन से संसार की कैसी दुरवस्था हो रही है यह संस्थानविचय है।
धHध्यान के इन चारों भेदों का ऐसा अर्थ करने से उसमें एक प्रकार का क्रम आजाता है, जो कि धर्म के किसी उद्देश्य को पूरा करने के लिये उचित और आवश्यक मालूम होता है ।
शुक्लध्यान--धHध्यान की तरह यह भी एक पवित्र ध्यान है । इसके भी चार भेद है, पृथक्त्व वितर्क, (इस अवस्था में ध्यान कुछ काल रहता है। एक विषय पर स्थिर होने पर भी भीतर ही भीतर इसमें कुछ परिवर्तन होता रहता है) एकत्ववितर्क (इसमें परिवर्तन नहीं होता) सूक्ष्म कियाप्रतिपाति (मरते समय जब शरीर में एक प्रकार की स्थिरता आजाती है, बहुत ही सूक्ष्म किया बाकी रह जाती है, उस समय यह ध्यान माना जाता है) व्युपरत.कयानिवर्ति-इसमें वह सूक्ष्म किया भी बन्द हो जाती है।