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[ जैनधर्म-मीमांसा कुलोत्पन्न न हो किन्तु ब्राह्मण हो तो भी नहीं दिया जाता । श्रमण सम्प्रदाय में यह दान श्रमणोपासकों को भी दिया जाने लगा। परन्तु आज पात्रापात्र का विचार कुछ दूसरे ढंग से करना चाहिये ।
ब्राह्मण कुलोत्पन्न होने से या ब्राह्मण (विद्वान ) होने से ही कोई पात्र नहीं हो जाता और न श्रमण का वेष धारण करने से पात्र होता है । सच्ची साधुता का स्वरूप पहिले कहा गया है । उसी को कसै.टी बनाकर साधुता की-पहिचान करना चाहिये, मनुष्य में निस्वार्थ समाज सेवाके साथ समाज सेवा करने की जितनी योग्यता होगी और उस का वह जितना उपयोग करेगा उसकी पात्रता उतनी ही अधिक होगी, फिर वह किसी भी जाति का क्यों न हो और किसी भी वेप में क्यों न हो।
पहिले ज़माने में पात्र को चार वस्तुएँ दी जाती थी। भाजन, औषध, ज्ञानवृद्धि के साधन, रहने या टहरने के लिये स्थान । वस्त्र तथा अन्य उपकरणों का समावेश भी इन्हीं में हो जाता है। आज भी इस प्रकार के साधन जुटाना आवश्यक है। परन्तु इसके अतिरिक्त कुछ और भी करना चाहिये ।
पात्रों में भिक्षावृत्ति अनिवार्य न वन जाय, उनके हृदय पर कर्मण्यता का कुछ अंकुश रहे तथा कुपात्र भी पात्रों में न घुम जायँ-इसके लिये दानप्रणाली में कुछ नया दंग लाना चाहिये । उनको भोजनादि देने की अपेक्षा उपार्जनके साधन जुटादेना की बहुत अच्छा है। वे स्वयं परिश्रम करें, उस के बदले में जीवन निर्वाह के लिये उचित और आवश्यक वस्तुएँ लें और अगर कुछ बचत हो तो समाज को अर्पण करें।