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[ जैन धर्म-मीमांसा
झाने के लिये पापों का भी पाँच भेदों में वर्णन करना पड़ा | परन्तु रौद्रध्यान के भेद बढ़ाने की कोई ज़रूरत नहीं थी इसलिये वे चार ही रहे । अगर 'आज किसी को उस का पाँच, भेदों में वर्णन करना' हो तो भले ही करे, इस में कोई आपत्ति नहीं है ।
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धर्म्यध्यान- ज्ञान चारित्र रूप धर्म से युक्त ध्यान धर्म्यध्यान है । धर्मध्यान की कोई ऐसी परिभाषा नहीं जो उसे शुरुध्याम से अलग करती हो । बर्म्यय्न और शुरूध्यान मोया अंतर है, इसका भी स्पष्टीकरण नहीं मिलता है । सर्वार्थसिद्धि में इतना अवश्य कहा है कि श्रेणी आरोहण के पहिले ध्यान है और श्रेणी में शुक्र । फिर भी इसमे दोनों के स्वरूप में अन्तर नहीं मातृम होता जिससे यह समझ में आ जाये कि दोनों में यह गुणस्थान भेद क्यों हुआ है : इसके अतिरिक्त एक अड़चन और है श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित तत्त्वार्थसूत्र में ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान तक ध्यान बतलाया गया है। अगर यह बात मानी, जाय तब तो धम्यच्यान और शुलध्यान एक प्रकार से समान दर्जे के है| जाते हैं । इस प्रकार इनमें स्वरूप भेद बताना और भी कठिन हो जाता है ।
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- बहुत कुछ विचारने पर व मालूम होता है कि धर्मध्यान में कर्तव्य का विचार किया जाता है इसका सम्बन्ध धर्म पुरुषार्थ से है और शुरूध्यान में धर्म की सिद्धि का अनुभव किया जाता
* तत्र व्याख्यानतो विप्रतिपतिरिति प्यारोहणात्प्राग्धर्म्य श्रेण्योः शुक्ते । ९-३७ ।
1. उपशान्तक्षीणकषाययोश्च । त० ९-३८