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[जैनधर्म-मीमांसा स्वाध्याय-स्वाध्याय को भी तप में शामिल करके जैन. धर्म ने तप की व्यापकता तथा प्रत्यक्ष फलप्रदता का सन्दर प्रदर्शन किया है । स्वाध्याय वास्तव में एक महान् तप है। ज्ञान के विना मनुष्य कुछ नहीं कर सकता और स्वाध्याय ज्ञानप्राप्ति का असाधारण कारण है।
- इसके पाँच भेद किये गये हैं । वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय, धर्मोपदेश।
शिष्योंको पढ़ाना अथवा किसी को निर्दोष मन्या सुनाना या उसका अर्थ समझाना वाचना है ! सच पूछा जाय तो वाचना का समावेश.धर्मोपदेश में करना चाहिये । प्राचीन ग्रन्धकारों ने जो इसे स्वतन्त्र भेद माना है उसका कारण प्राचीन युग में लेखनपद्धति की कठिनाई है । पहिले जमाने में शास्त्र श्रुतिस्मृति रूपमें रहते थे। वे सुने जाते थे और स्मरण में रखे जाते थे, इसलिये श्रुति या स्मृति या श्रुति-स्मृति कहलाते थे | जब कोई गुरु या गुरुतुल्य व्यक्ति किसी को याद करने के लिये ग्रन्थ सुनाता था तथा उसका अर्थ भी समझाता था, तब यह वाचना कहलाती थी । धर्मोपदेश में कोई पाठ नहीं किन्तु इच्छानुसार अपने शब्दों में व्याख्यान किया जाता था। .. लेखन प्रणाली का अधिक प्रचार न होने से स्वाध्याय के भेदों में, लिखी हुई पुस्तक आदि के पढ़ने के लिये कोई शब्द ही नहीं रक्खा गया । वार्चना का जो उपर अर्थ किया क्या है, वह
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-तत्र वाचनम् शिष्याध्यायनम् । तत्वार्थमाष्य ९-२५॥ निरवयमन्थार्थोमयप्रदानम् वाचना | ० रा. वर्तिक । ९-२५-।