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दशधर्म ]
[२६३ कारण बताये हैं । (१) दूसरे धर्मों ने इनका तप रूप में अभ्यास नहीं किया । (२) अन्तःकरण की वृत्ति पर अवलम्बित हैं। (३) इनके करने में बाह्यद्रव्य की आवश्यकता नहीं । इससे मालूम हो सकता है कि जैनधर्म का वास्तविक तप क्या है ?
अन्तरङ्ग तप छः है-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान ।
प्रायश्चित्त- अपने दोषों के दुष्प्रभाव को दूर करने के लिये स्वेच्छा से प्रयत्न करना प्रायश्चित्त है । प्रायश्चित्त और दंड का उद्देश्य एक ही है । दोनों ही दोषों के दुष्प्रभाव को दूर करने के लिये हैं, परन्तु प्रायश्चित्त स्वेच्छता से होता है, वह आत्मशुद्धि से सम्बन्ध रखता है; जब कि दंड में स्वेच्छा का खयाल नहीं किया जाता, इसलिये प्रायश्चित्त तप है, दंड तप नहीं है ।
प्रायश्चित्त गुरु आदि के द्वारा दिया जाता है और दंड किसी शासक के द्वारा दिया जाता है, इसलिये दोनों की प्रक्रिया में भी भेद है। फिर भी कभी दंड प्रायश्चित्त बन जाता है; और कभी प्रायश्चित्त; दंड बन जाता है । अनिच्छा से लिया गया प्रायश्चित्त आत्मशोधक नहीं होता, इसलिये वह दंड है । और जब नीति की रक्षा के लिये शासक के सामने स्वेच्छा से आत्म समर्पण किया जाता है तब वह दंडरूप होकर भी प्रायश्चित्त है । मतलब यह कि स्वेच्छा और अनिच्छा से दोनों में भेद पैदा होता है।
प्रायश्चित्त, दंड न बन जाय- इसलिये अनेक दोषों का बचाव किया जाता है । इसके लिये यह आवश्यक है कि किसी प्रकार का बहाना न किया जाय, मायाचार न किया जाय । जिस