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दधौ ]
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. कोई कोई लोग शान का प्राण, अभ्यास, स्मरण आदि को ज्ञान-विनय कहते हैं। बात तो अच्छी है परन्तु श्रेणी-विभाग की घष्टि से उसका समर्थन नहीं किया जा सकता । क्योंकि ज्ञान-ग्रहण अभ्यास आदि तो स्वाध्याय नाम के तप में आजाते हैं । तब उसका इसी जगह अन्तर्भाव करना उचित नहीं मालूम होता ।
कोई कोई लोग शानियों की विनय को ज्ञान विनय समझते हैं, परन्तु यह सो उपचार-विनय है।
सम्यग्दर्शन का विस्तृत स्वरूप पाहिले कहा गया है उसके अह्नों का वर्णन भी हुआ है । उन बातों में आदर रखना दर्शनविनय है । शान और दर्शन में जो थोड़ा बहुस भेद है वह पहिले समझाया गया है। उससे ज्ञान-विनय और दर्शन-विनय का भेद भी समझा जा सकता है । सच बात तो यह है कि ज्ञान-विनय और दर्शन-विनय भगवान सत्य की उपासना है।
चारित्र-विनय भगवती अहिंसा की उपासना है। चारित्र के जो नियम पहिले बताये जा चुके है उनमें आदर भाव, विनय भाव रखना, स्वार्थ के पीछे उनका मानसिक, वाचनिक या शारीरिक तिरस्कर न करना चारित्र विनय है। . मान दर्शन चारित्र को धारण करने वालों का योग्यतानुसार आदर करना, किसी भी तरह उनका तिरस्कार न होने देना, उनकी अपेक्षा अयोग्यों का उनके सामने उनसे अधिक आदर न करना बादि उपचार-विनय है।
अधिकार के और शनि के आगे भय से, अन और किसी प्रलोभन के आगे लालच से सिर झुकाने-बाले तो प्रायः सभी है