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दशधर्म . ]
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है । तपका वर्णन पहिले हो चुका है । प्रायश्चित्त के प्रकरण में तप का अर्थ उपवास आदि बाह्य तप है ।
छेद प्रायश्चित पहिले समय के रिवाज पर अवलम्बित है । पहिले समय में यह नियम था कि जो मनुष्य पहिले दीक्षित होता था, वह बड़े भाई के समान माना जाता था और जो पीछे दीक्षित होता था वह छोटे भाई के सनान माना जाता था । इस के बाद सम्पता का नियम लगता था कि छोटा भाई बड़े भाई की विनय करे । एक मुनिकी उमर पचास वर्षकी है परन्तु वह पाँच वर्ष से दीक्षित है, और दूसरे की उमर चालीस वर्षकी है परन्तु वह दस वर्ष का दीक्षित है, ऐसी हालत में पचास वर्षकी उमरवाला चालीस वर्षकी उनर वाले का छोटा भाई कहलायेगा | लोकन्यनहार में जो स्थान उमर को प्राप्त है, मुनिसंस्था में वह स्थान दीक्षाकाल को प्राप्त था । जिस प्रकार व्यवहार गुण, पद आदिके कारण उपर के नियम में अपवाद होता है, इसी प्रकार के अपवाद दीक्षाकाल में भी हुआ करते थे । दीक्षाकाल के इसनियन का उपयोग प्रायश्चित्त के लिये भी किया गया था। अगर दस वर्ष के दीक्षितको नव वर्ष को दीक्षित नमस्कार करता है और कल दस 'वर्ष दीक्षित से ऐसा अपराध हो गया कि उसकी दीक्षा का दी वर्ष छेद कर दिया गया तो वह आठ वर्षके दीक्षित के समान हो जायगा और अत्र नत्र वर्ष बाले को बड़ा भाई मानेगा । यह छेद है ।
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कभी कभी दोषी प्रायश्चित्त में कुछ समय के लिये संघ से बाहर कर दिया जाता था । यह परिहार था | और जब बहुत
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