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दशधर्म 1
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वह न तो आत्म-शोधन करता है. (अथवा बहुत थोड़ा करता है) और न निर्वैरता पैदा करता है । जब हमसे किसी का अपराध हो जाता है, और उससे जो बैर बढ़ता है- जो कि बड़े बड़े अनथों को पैदा करता है, उसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि उस अपराध से उसकी ऐसी हानि हो गई है जिसकी वह पूर्ति नहीं कर सकता; किन्तु उसका कारण यही होता है कि वह हमको अपना हितैषी और विश्वासी नहीं समझता । प्रायश्चित्त से वह विश्वस्तता फिर पैदा की जाती है । परन्तु अगर हम चुपचाप प्रायश्चित्त कर लें तो इस से दो बड़ी हानियाँ होगी पहिली तो यह कि जिसका हमने अपराध किया है- उसको हमारी आत्म-शुद्धि का पता न लगेगा, इसलिये उसका बैर बढ़ता ही जायगा । दूसरी यह कि इससे हमारे अहङ्कार की पुष्टि होती है । अपराधी होने पर भी जब हम अपना अपराध प्रगट रूप में स्वीकार नहीं करते तत्र इसका कारण यही समझना चाहिये कि इससे हम अपनी तौहीन समझते हैं। यही 'अहङ्कार तो आत्म-शुद्धि के मार्ग में सबसे बड़ा अड़ंगा है । जहाँ अहङ्कार है, वहाँ प्रेम कहाँ ! जहां प्रेम नहीं, वहाँ शान्ति कहाँ ? अहाँ शान्ति नहीं, वहाँ सुख कहाँ ?
हमारी यह छोटी-सी ही भूल अनर्थ पैदा करती 1 हम मित्रों की हानि और शत्रुओं की सृष्टि करते हैं । हम मुनि हो या श्रावक हमारा कर्तव्य है कि हमसे जब किसी का अपराध हो जाय तो वह हमें माफ करे या न करे; परन्तु हमें उसके सामने अपराध स्वीकार कर लेना चाहिये । अपराध कितना भी पुराना पड़ गया हो, परन्तु वर्षों पीछे भी उसकी आलोचना सफल है । इस