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दशधर्म ]
[२५५ इसलिये उनके जीवन में अन्तरङ्ग तपस्याओं के समान बहिरङ्ग तपस्याओं का भी उग्र रूप दिखलाई देता है । बाह्य-तप, बाब होने से उसकी तरफ लेगों का ध्यान बहुत जल्दी आकर्षित होता है, तथा उनके पालन में विशेष योग्यता की आवश्यकता भी नहीं होती । यश या प्रशंसा भी शीघ्र मिल जाती है, इसलिये अधिक उपयोगी न होने पर भी वह बहुत जल्दी फैल जाता है । जैन साहिल में तथा जैन समाज में इस बाह्य तपने बहुत अधिक स्थान घेर लिया है। उसकी उपयोगिता तथा मर्यादा का भी ख़याल लोग को नहीं रहा है। बाब तप की विशेष उपयोगिता इसी में थी कि लोग स्वास्थ्य को सम्हाले रखे, तथा अवसर पड़ने पर कष्ट का सामना कर सके, इसलिये कष्टसहिष्णुता का अभ्यास करते रहे परन्तु अब इन दोनों बातों का विचार नहीं किया जाता न इनकी सिद्धि होती है। प्रत्येक व्यक्ति को यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि महात्मा महावीर ने बाह्य तप जितना किया था उससे अधिक अन्तरङ्ग तप किया था। अन्तरङ्ग तप के बिना बाह्य तप का कुछ मूल्य नहीं है। दूसरी बात यह है कि युग के अनुसार भी तप की आवश्यकता होती है । महात्मा महावीर का युग ऐसा था कि उस समय बाप तप के बिना लोगों का सत्य की तरफ आकर्षण करना कठिन था। इसलिये भी बहुत से तप करना पड़ते थे। बज्ञानियों और बालकों को समझाने के लिये अगर अनिवार्य हो तो थोड़ी बहुत मात्रा में इस प्रकार की निर्दोष किया करना पड़े तो कोई हानि नहीं है । तीसरी बात यह कि बाब तप की कीमत तभी पूरी होती है जब वह भानुषादिक तप बन जाय । उपवास का