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मुनिसंस्था के नियम रक्षा का उपकरण है । नग्न देखकर दूसरों की कोई कष्ट न हो-इस प्रकार की दया से अंग ढकने लायक कपड़ा रखना 'कपड़े' को दया का उपकरण बनाना है, तथा शातादि कष्ट से स्वास्थ्य नष्ट न हो जाय-इस विचार से 'कपड़।' स्वास्थपकरण बनता है । मुनि को शरीर की पर्वाह नहीं होती, इसका यह मतलब नहीं है कि वह आवश्यकता के बिना भी स्वास्थ्य नाश करता है । कर्तव्य के लिये शरीर का उत्सर्ग करना या उसकी पर्वाह न करना एक बात है
और व्यर्थ ही कष्ट सठ ना- दूसरी । इस. दूसरी बात से अपरिग्रह का कोई सम्बन्ध नहीं है, बल्कि व भी कभी विवेकशून्यता तथा हठग्राहिता के कारण इसका सम्बन्ध मिथ्यात्व से हो जाता है।
किसी चीज का उपयोग करने से ही वह परिग्रह नहीं हो जाती। नहीं तो जमीन पर चलने से जमीन भी परिग्रह हो जाय । इसी प्रकार भोजन करने से अन्न और जल भी परिग्रह हो जाय । आ. सक्ति होने पर शरीर भी परिग्रह है । भावलिंग के वर्णन में शरीर को भी परिग्रह कहा है और सच्चा साधु बनने के लिये शरीर के त्याग का * भी उपदेश है । परन्तु शरीर का त्याग कर देने पर वह जीवित ही कैसे बचेगा ! इसलिये शरीर त्याग का मतलब उस से ममत्व अर्थात आसक्ति का त्याग है । कर्तव्य मार्ग में शरीर-प्रेम
* देहादि संग राहओ माण कसा सयकारीतो
अप्पा अप्पम्मि रओ स मावलिंगी हवे साह। -भावप्राभूत ५६ । देहो नाहिरगन्धो अपणो अक्खाण विसय अहिलासो। तसिं चाए खबओ परमत्थ हबइ णिगंयो । -आराहगासार । ३३. :