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द्वादशानुप्रेक्षा]
[२४३ भावना से शारीरिक सुखदुःख अपने को विक्षुब्ध नहीं कर पाते, प्रायः शारीरिक सुख-दुःख के विचार में ही मनुष्य की सारी शक्ति नष्ट होती है, परन्तु सुख-दुःख का बड़ा श्रोत शरीर से भिन्न किसी अन्य वस्तु में है-इस बात के विचार से वह प्रथम अध्याय में बतलाई हुई मुखी रहने की कला सीखता है और सुखी बनने के लिये भौतिक साधनों पर ही अवलम्बित नहीं रहता।
प्रश्न-यद्यपि आपने आत्मा का पृथक अस्तित्व सिद्ध कर दिया है, फिर भी दार्शनिक या वैज्ञानिक दृष्टि से आत्मा की समस्या, समस्या ही बनी रहती है । अब भी ऐसे विचारक हैं जो आत्मा को स्वतन्त्र तत्व नहीं मानते । वे यह भावना कैसे रख सकते हैं ! ये भावनाएँ तो धार्मिक हैं, इनका दार्शनिक या वैज्ञानिक बातों से सम्बन्ध करने की क्या ज़रूरत है !
उत्तर-अन्यत्व-भावना का दार्शनिक चर्चा से कोई सम्बन्ध नहीं है, इसलिये आत्मा के नित्यत्व से भी कोई सम्बन्ध नहीं है। यहाँ तो सिर्फ इतनी बात से मतलब है कि शारीरिक सुखों से भिन्न और भी मुख है, जिसके न होने पर शारीरिक सुख न होने के बराबर है और जिसके होने पर शारीरिक सुखों का अभाव नहीं खटकता । आत्मवादी उसे आत्मीक-मुख कहें और अनात्मवादी उसे मानसिक-सुख कहें । यह बात तो अनुभवसिद्ध है कि बहुत से मनुष्य खाने-पीने का कष्ट होने पर भी प्रसन्न रहते हैं, जेल की यातनाएँ भी उनके हर्ष को नहीं छीन पाती और बहुत से आदमी सब साधन रहने पर भी ईष्र्या आदि से जलते हैं, चैन से सो भी नहीं पाते । यही अन्यत्व की सर्चाई मालून होती है । इस सुख-श्रोत