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द्वादशानुप्रेक्षा ]
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प्रलोभनों में फँसकर कर्तव्यच्युत न हो जावें । दूर से वस्तु सुन्दर
दिखाई देती है, इस लोकोक्ति के अनुसार हम दूसरों को सुखी समझा करते हैं, परन्तु प्रत्येक मनुष्य जानता है कि मैं सुखी नहीं हूँ। जो चीज़ उसके पास होती है उसके विषय में वह विचार किया करता है कि - " अच्छा ! इससे क्या हुआ !" इस प्रकार का असन्तोष उसे दूसरों की तरह बनने के लिये प्रेरित करता है और यह प्रेरणा परिमह - पाप को बढ़ाने में तथा उसके द्वारा अन्य पापों के बढ़ाने में सहायक होती है । अगर उसे यह मालूम हो जाय कि इतना पाप करके भी मुझे जो कुछ मिलेगा उसमें भी मैं दुखी रहूँगा, तो पाप की तरफ़ उसकी प्रेरणा नहीं होती । परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि अगर हमारे और दूसरों के ऊपर अत्याचार होता हो तो हम उसे दूर करने की कोशिश न करें । प्रथम अध्याय में कहे गये नियमों के अनुसार हमें सुख की वृद्धि करना ही चाहिये ! इसलिये इस भावना के विषय में दूसरी दृष्टि यह है कि संसार में दुःख बहुत है. प्राकृतिक दुःखों की सीमा नहीं है, उन्हीं को हटाने में हमारी सारी शक्ति खर्च हो सकती है, फिर भी वे पूरे रूप में न हट पायेंगे । ऐसी हालत में हम परस्पर अन्याय और उपेक्षा करके जो दुःखों की वृद्धि करते हैं, यह क्या उचित है ! संसार में दुःख बहुत हैं, इसलिये हम से जितना बन सके उसे नष्ट करने की कोशिश करना चाहिये, इत्यादि अन्य अनेक दृष्टियों से यह भावना रखना चाहिये, जिससे स्वपर-कल्याण हो ।
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एकत्व - मनुष्य अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरता है, हर हालत में इसका कोई साथी नहीं है, इत्यादि विचार