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द्वादशानुपेक्षा]
[२३९ जब यह 'चार दिनों की चाँदनी फिर अँधेरी रात, है तब इस चाँदनी को अत्याचार से काला क्यों बनावें ! जब इस शरीर को एक दिन मिट्टी में मिलना ही है तब इसे दूसरों के सिर पर क्यों नचावें" इस प्रकार के विचार हमें न्यायमार्ग से भ्रष्ट नहीं होने देते । यही अनित्यभावना की उपयोगिता है।
विपत्ति में धैर्य रखने के लिये भी यह भावना उपयोगी है। जिस प्रकार सम्पत्ति चली जाती है उसी प्रकार विपत्ति भी चली जाती है । विपत्ति के आने पर अगर हमारा ध्यान इस बात पर रहे कि-यह विपत्ति चली जावेगी-तो हम घबराते नहीं है और हताश होकर नहीं बैठ रहते।
' प्रत्येक वस्तु का दुरुपयोग होता है, इसलिये इस भावना का भी दुरुपयोग हो सकता है, जिससे बचने की ज़रूरत है । पहिला दुरुपयोग है-इस विचार को दार्शनिक रूप दे देना । दार्शनिक दृष्टि से जगत् नित्य है या क्षणिक, इस प्रकार की मीमांसा में इस भावना का विचार न करना चाहिये । दार्शनिक दृष्टि का सम्बन्ध समस्त जगत् के विषय में विचार करने से है, हेय उपादेय, आसक्ति अनासक्ति आदि दृष्टियों से नहीं । अमित्यभावना हृदय को निःस्वार्थ बनाने के लिये है । दार्शनिक दृष्टि से अगर जगत् नित्य सिद्ध हो तो भी अनित्यभावना मिथ्या न हो जायगी।
दूसरा दुरुपयोग अकर्मण्यता का है। अनासक्त बनना चाहिये, परन्तु अकर्मण्य न बनना चाहिये । व्यक्त या अव्यक्त रूप में हम समाज से बहुत कुछ लेते हैं, उसका ब्याजसहित बदला