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[जैनधर्म-मीमांसा इन ग्यारह मूलगुणों में मुनि-संस्था के मुख्य मुख्य नियम आ जाते हैं । समयानुसार इनमें परिवर्तन भी किया जा सकता है, परन्तु संख्या के घट-बढ़ जाने पर भी या थोड़े-बहुत नामों के बदल जाने पर भी वस्तुतत्त्र में कोई अन्तर नहीं आता। अन्य छोटे नियम समयानुसार बनाये जा सकते हैं ।
चारित्र के अंगरूप में बहुत-सी बातें जैन शास्त्रों में प्रचलित हैं । परन्तु आजकल उनका अर्थ सिर्फ ऐकान्तिक निवृत्ति को लेकर लिया जाता है । इसलिये संक्षेप में उनका वास्तविक अर्थ बतला देना आवश्यक है, जिसका कि इस संशोषित सय जेनधर्म के साथ समन्वय हो सके।
. द्वादशानुप्रेक्षा
वैराग्य पैदा करने के लिये ये बारह तरह की भावनाएँ विचारधाराएँ जैनसाहित्य में प्रचलित हैं।
अनित्य-प्रत्येक पदार्थ नष्ट होनेवाला है, इस प्रकार का विचार करना अनित्य-भावना है। अनासक्ति के लिये यह विचार बहुत अच्छा है । "दुनियाँ की जिन चीजों के लिये हम अन्याय करते हैं, वे साथ जानेवाली नहीं है.- यह जीवन भी क्षणभंगुर है, तब भला इसके लिये दूसरों के अधिकारों का नाश करना व्यर्थ है । प्रकृति को शायद हम थोड़े बहुत अंशो में विजय कर सकें, दूसरे मनुष्यों पर भी विजय पा सकें, परन्तु मौत पर विजय नहीं पा सकते । मौत हमारी सब विजयों को छीन लेगी । जो हमारे सामने देख नहीं सकते, कल व हसँग; आज जो एक शब्द भी बोल नहीं सकते-कल वे ही मनमानी सुनायेगे