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मुनिसंस्था के नियम ]
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बात अवश्य है कि कलाकार या विद्वान ज्यादह और मज़दूर कम हो तो कलाकार और विद्वानों को मज़दूरी भी करना पड़ेगी । मतलब यह कि किस काम की कितनी आवश्यकता है - उसे देखकर योग्यतानुसार काम का चुनाव किया जाना चाहिये । परस्पर में एक दूसरे की सेवा करना, रोगी की देखभाल रखना आदि आवश्यक कर्तव्य हैं, जो कि इस मूल-गुण के नाम पर अवश्य करना चाहिये ।
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कष्टसहिष्णुता - साधु-संस्था जो कि 'सेवा संस्था' है, उस में कष्टसहिष्णुता तो अत्यावश्यक है । उपसर्ग और परीषों की विजय का वर्णन इसीलिये किया जाता है, परन्तु सहिष्णुता शब्द की महत्ता पर अवश्य ही ध्यान रखना चाहिये । कष्टों के सहने का अर्थ है - कष्टों को सहन करके दुःखी न होना, कर्तव्य न छोड़ना । ज़रा ज़रा-सी बात में जो लोग झुंझला उठते हैं, अथवा थोड़ी-सी असुविधा में भी जिनका पारा गरम हो जाता है, वे कष्टसहिष्णु नहीं है । शारीरिक कष्टसहिष्णुता को यथासाध्य बढ़ाना चाहिये, किन्तु मानसिक कष्टसहिष्णुता तो और भी अधिक आवश्यक है ।
कष्ट-सहिष्णुता का यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य व्यर्थ के कष्ट मोल ले । 'धर्म सुख के लिये है, इसलिये न तो अनावश्यक कष्टों को मोल लेने की ज़रूरत है, न आवश्यक और निर्दोष ( जिससे दूसरों के अधिकार नष्ट न होते हों) सुखों के त्याग करने की ज़रूरत है। हाँ, सहिष्णुता का अभ्यास बढ़ाने के लिये उपवास आदि कोई भी काम किया जा सकता है, परन्तु उसमें धैर्य न छूटना चाहिये, न स्वास्थ्य को हानि पहुँचना चाहिये ।