________________
२४०]
[जैनधर्म मीमांसा चुकाने की कोशिश करते रहना चाहिये । दुनिया क्षणभंगुर है, और हम भी क्षणभंगुर हैं, इसलिये उत्तरदायित्वहीन जीवन बनाना कायरता है।
अशरण-मैं दुनिया का रक्षक हूँ, अथवा मेरे बहुत सहायक हैं, मेरा कौन क्या कर सकता है-इस प्रकार का अहङ्कार मनुष्य में न आ जाय, इसके लिये अशरण भावना है । मनुष्य का यह अहकार व्यर्थ है; क्योंकि मरने से इसकी कोई रक्षा नहीं कर सकता, न यह किसी को मरने से बचा सकता है । बीमारी आदि के कष्टों का इसे स्वयं वेदन करना पड़ता है, उस समय उसके दःखानुभव में कोई हाथ नहीं बटा सकता-आदि अशरण भावना है। इसका उपयोग अहङ्कार के त्याग के लिये करना चाहिये ।
दया परोपकार आदि छोड़कर निपट स्वार्थी हो जाना अशरण भावना नहीं है । क्योंकि यद्यपि हम किसी की रक्षा नहीं कर सकते, किन्तु रक्षा करने के लिये यथाशक्ति प्रयत्न करके सहानुभूति तो बतला सकते हैं और कष्ट सहने का उसमें साहस पैदा कर सकते हैं । इस भावना का मुख्य लक्ष्य यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को किसी की शरण की आशा न रखकर खावलम्बी बनना चाहिये, तया परोपकार आदि करके 'हम दुनिया के रक्षक हैं, हमारे बिना किसी का काम नहीं चल सकता' इत्यादि अहङ्कार छोड़देना चाहिये।
संसार-'चाहे श्रीमान हो, चाहे गरीब, सभी दुःखी हैं। यह भावना इसलिये आवश्यक है कि जिससे हम संसार के क्षुद