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[जैनधर्म-मीमांसा
के रूप में मिलता है । दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख हुआ है, परन्तु यह वहाँ उट्टे अणुव्रत के रूप में प्रचलित । हुआ है। इस प्रकार जब यह श्रावकों के लिये व्रत बन गया, तब मुनियों के लिये हो, यह स्वाभाविक है । मूलाचार में यह : व्रत की रक्षा के लिये : उपयोगी बताया है । सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में कहा है कि यह अहिंसावत की भावना में शामिल है । परन्तु यह बात मूलाचार के विरुद्ध मालूम होता है । मूलाचार में पाँच व्रतों की रक्षा के लिये रात्रि भोजन त्याग, आठ प्रवचनमाताएँ,
और पच्चीस भावनाएँ* बताई गई हैं। अगर आलोकितपानभोजन मावना में रात्रि भोजनत्याग शामिल होता तो मलावार में रात्रि. मोजन को भावनाओं से अलग न. बताया होता । दूसरी बात यह है कि भावना तो भावना है, विचार है । वह पका नियम नहीं है। यों तो सत्यव्रत की भावनाओं में क्रोध, लोभ का भी त्याग बताया है, परन्तु इसीलिये किसी को थोड़ा बहुत क्रोध आ जाय तो उसका व्रत भंग नहीं माना जा सकता । सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिककार उसे खींचतान करके व्रतों में शामिल करने हैं।
इस विवेचन का सार यही है कि रात्रि भोजन त्याग पहिले www.mmmmmmimmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwmmmmmmmm
कचित्तुराज्य भोजनमपि अगुव्रतमुच्यते । सागारधर्मामृत ।
व्रतत्राणाय कर्तव्यम् रात्रिमोजन वर्जनम् । सर्वयान्नान्निवृस्तत्प्रोक्तं. षष्ठमणुव्रतम् । ५-७० आचारसार । रात्रिभोजन विरमगं षन्ठमणुव्रतम्। चरित्रसार । । तेसिंचव वयाणं रक्खलु रादिभोयणणियति । मूलाचार २९५। .
* गाथा २९।