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[ जैनधर्म-मीमांसा
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समय आ जाता है, इसलिये साधु के लिये भिक्षा का उचित समय 'पोरस' बताया गया था । यह समय करीब दस बजे के पहिले ही व्यतीत हो जाता है और गरमी के दिनों में तो नै। या उससे भी पहिले निकल जाता है । रात्रिभोजन त्यागी के घर में इस समय निरुद्दिष्ट भोजन नहीं मिल सकता । इन सब कठिनाइयों से यह आवश्यक मालूम हुआ कि साधु के सम्मान श्रावक भी रात्रि भोजन का त्याग करें । शताब्दियों के प्रयत्न के बाद इस विषय में आशातीत सफलता मिली और साधु-संस्था की कठिनाई हल हुई । इसमें सन्देह नहीं कि दिवस- भोजन की अपेक्षा रात्रि - भोजन कुछ हीन श्रेणी का है । और पुराने जमाने में जब कि आजकल सरीखे साधन नहीं थे, ख़ासकर इस गरम देश में तो रात्रि-भोजन स्याग की बहुत आवश्यकता थी । रात्रि-भोजन का त्याग कर देने से रात्रि के लिये निराकुलता भी रहती है । आरोग्य की दृष्टि से भी रात्रि - भोजन, दिवस भोजन ठीक नहीं है ।
की अपेक्षा
इतना सब होते हुए भी रात्रि-भोजन त्याग को मूलगुण नहीं रख सकते; क्योंकि आज यहाँ मुनिसंस्था के नियम ही बदल दिये गये हैं, इसलिये पुरानी असुविधाओं में से कुछ असुविधाएँ तो यों ही निकल जाती हैं । अब न तो भिक्षावृत्ति को अनिवार्य रखना है, न रात्रि-गमन का निषेध | इसलिये रात्रिभोजन त्याग कि अनिवार्यता नहीं रह जाती ।
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* जिस समय अपने शरीर की छाया अपने शरीर के बराबर ही लम्बी
हो, उसको 'पोरस' का समय कहते हैं।