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[जैनधर्म-मीमांसा है। मल-गुणों में मानसिक सहिष्णुता कोही स्थान दिया जा सकता है । शारीरिक सहिष्णुता पर साधु का क्य! वश है। शरीर की कमजोरी से बाहर की छोटी-सी चोट अधिक कष्ट पहुँचा सकती है और दूसरे को शरीर की दृढ़ता से बड़ी चोट भी इतना असर नहीं पहुंचा सकती । शारीरिक शक्तियों की इस विषमता से इसका निर्णय करना कठिन है कि किसमें कितनी कष्ट-सहिष्णुमा हैं। आखिर कष्ट-सहिष्णुता की भी सीमा है, इसलिये इसका निर्णय और भी कठिन है। फिर भी साधारणतः कष्ट-सहिष्णुता का उल्लेख करना जरूरी है, जिससे साधु में आरामतलबी आदि दोष न आ पावे, तथा आवश्यकता होने पर उसका ध्यान इस तरफ आकर्षित किया जा सके।
स्वताम्बर सम्प्रदाय में सत्ताईस मूल-गुणों का जो दूसरा पाठप्रवचनसारोदारका है, उसमें भी इसी प्रकार की अस्तव्यस्तता तथा पुनरुक्ति पाई जाती है । उमका - यह दोष नामावली से ही स्पष्ट हो जाता है, इसलिये उनका विवेचन करने की कोई ज़रूरत नहीं है। सिर्फ दो बातों का विचार करना है। एक तो छः काय के जीवों की रक्षा, दसेर व्रत में रात्रि भोजन स्याम । इस में से छः काय के जीवों की रक्षा को मुल-गुणों में शामिल नहीं कर सकते क्योंकि पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि की रक्षा के सूक्ष्म नियम
आज आवश्यक है । तथा कभी कभी तो वे सेवा को रोकते है अनावश्यक असुविधाएँ पैदा करते हैं । इसके अतिरिक्त इनमें जीवन है कि.नहीं, यह बात भी अभी तक असिद्ध कोटि में है । सम्भव है कि भविष्य में इनमें जीवन सिद्ध हो सके, परन्तु अभी तो