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मुनिसंस्था के नियम
(२२९ नहीं है और जिनमें उन्नति के तत्व अधिक मौजूद हैं उनमें समभाव अर्थात् एक-सा भाव कैसे रक्खा जा सकता है ! . . उत्तर-उन्नति के लिये उपयोगी तत्वों की अपेक्षा से न्यूनाधिकता हो सकती है, परन्तु जिस समय जो धर्म उत्पन्न हुआ था, उस समय की परिस्थिति के अनुसार विचार करने पर धों के व्यक्तित्व की तस्तमता बहुत कम हो जाती है । फिर भी जो न्यूनाधिकता हो उसकी हम आलोचना कर सकते हैं । परतु इसमें पूर्ण निःपक्षता और सहानुभूति होना चाहिये । सत्य-असत्य के विवेक को छोड़ने की ज़रूरत नहीं है परन्तु धर्म की ओट में आम-प्रसंशा या : आत्मीय-प्रशंसा और पर निन्दा या परकीय की निन्दा को छेड़ने की ज़रूरत है । और साधु के लिये तो यह अत्यावश्यक है।
चारित्रयुक्तता को मूलभगुण बनाने की ज़रूरत नहीं है; क्योंकि पहिले जो मूल-गुण बताये गये हैं वे सब चारित्र ही हैं। अहिंसा आदि व्रत भी चारित्र हैं । इसलिये चारित्रयुक्तता से किसी विशेष गुण का या कर्तव्य का ज्ञान नहीं होता, इसलिये मूल-गुणों की नामावली में इसका नाम नहीं रक्खा जा सकता।
__ वेदना सहन करना, मरणोपसर्ग सहन करना-आदि अच्छी बातें हैं । साधु में साधारण लोगों की अपेक्षा कुछ कष्ट-सहिष्णुता अवश्य होना चाहिये, परन्तु इन दोनों को अलग अलग मूल-गुण नहीं कहा जा सकता । हाँ, दोनों के स्थान पर कष्ट-सहिष्णुता नाम का मूळ-गुण रक्खा जा सकता है । परन्तु, इसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं हो सकती; क्योंकि इसका सम्बन्ध मन और शरीर दोनों से