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मुनिसंस्था के नियम ]
[२२५ के यहाँ भोजन लेता था और स्नान नहीं करता था, तब उसके लिये यह उचित था कि वह खड़े-खड़े आहार ले; क्योंकि बैठकर आहार लेन पर अन्न से उसका शरीर भिड़ जायगा, जिसके लिये उसे स्नान करना पड़ेगा, इसलिये जिन-कल्पी साधु के लिये यह नियम उचित था । परन्तु जब नग्नता आदि के नियम आवश्यक न रहे, न अस्नान-वत रहा, तब खड़े आहार लेने की कोई जरूरत नहीं रही। आजकल यह बिलकुल अनावश्यक है।
एक ही बार भोजन लेना--यह नियम है तो अच्छा, फिर भी भूल-गुण में रखने लायक नहीं है, क्योंकि एक ही बार भोजन करने से जहाँ एक तरफ स्वास्थ्य-हानि है, वहाँ दुसरी तरफ़ स्वास्थ्य-हानि के साधनों की कमी नहीं होती । एकभुक्ति से यह समझा जाता है कि मनुष्य कम खायगा । परन्तु, जब सदा के लिये यह नियम बन जाता है तब कम खाने की बात निकल जाती है, एक ही बार में दो बार का भोजन पहुंच जाता है । अपथ्य और अजीर्ण की सारी शिकायतें ज्यों की त्यों हो जाती हैं, बल्कि दूसरी बार भोजन न मिलने की आशा से ज़रूरत से ज्यारा भी हँस लिया जाता है | अजीर्ण आदि रोकने के लिये एक मुक्ति का नियम बिलकुल व्यर्थ है। यह बात तो खानेवाले की इच्छा परं निर्भर है कि वह अजीर्ण से बचा रहे।
हाँ, भोजन की लोलुपता को रोकने में थोड़ी बहुत सहायता मिल सकती है, परन्तु वह भी इच्छा पर निर्भर है, अन्यथा एक भुक्ति में भी रसना-इन्द्रिय की आज्ञा के अनुसार मनमाना नाच किया जा सकता है, इसलिये एकभुक्ति को मूल-गुण बनाना