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[जैनधर्म-मीमांसा
उचित नहीं । हाँ, समय की बचत के लिये यह शिक्षा-त्रत के स्थान पर रक्खा जा सकता है । उसमें पानी की तथा औषध की छुट्टी सदा के लिये होना चाहिये। बीच में आवश्यकता होने पर भी पानी पीने से स्वास्थ्य को धक्का लगता है । इससे अपने कर्तव्य में हानि होती है और दूसरों की परेशानी बढ़ती है, इसलिये पानी न रोकना चाहिये । उपवास में भी पानी पांना उचित है ।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में जो २७ मूल-गुण कहे गये हैं, उन में दो तरह के पाठ है । पहिले समवायांग के पाठ के अनुसार अहिंसादि पाँच व्रत दोनों सम्प्रदायों में हैं जिनको मैंने यहाँ भी स्वीकार किया है। सिर्फ उनकी व्याख्या समयानुसार की है । पाँच इन्द्रिय-विजय के विषय में मी कह चुका हूँ । बाकी मूल गुण कुछ अव्यवस्थित, पुनरुक्त और अस्पष्ट मालूम होते हैं। क्रोध-मानमाया-लोम के त्याग को चार मूल-गुण माना है, परन्तु ये ऐसी बातें है जिनका निर्णय करना कठिन है, बल्कि यों कहना चाहिये कि इनको दूर करने के लिये तो साधु-संस्था में प्रवेश है। फिर इनको मूल-गुण में रखने का क्या मतलब ! आगे तीन तरह के सत्य, तीन मुल- गुण माने गये हैं । उनमें भाव-सत्य का अर्थ है - अन्तरात्मा को शुद्ध रखना । इसके लिये तो चारित्र के सोर नियम हैं, फिर इसको मूल-गुण बनाने की जरूरत क्या है, अथवा सिर्फ इसे ही मूल-गुण बना लेना चाहिये और बाकी मूलगुणों को दूर कर देना चाहिये । करण-सत्य का अर्थ है, सफाई आदि का कार्य सतर्कता से करना । पहिले समितियों का जो वर्णन