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सुनिसंस्था के नियम ]
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इनका नाम नहीं है, यद्यपि पार्टने तो उनके यहाँ भी होता है । स्नान से स्वच्छता आती है और कभी कभी स्वच्छता से शृङ्गारी भाव पैदा हो जाते हैं तथा इससे वस्त्र पात्र का परिमाण भी बढ़ाना पड़ता है, इसलिये यह नियम बनाया गया था । उस समय साधु भी जंगल के स्वच्छ वातावरण में रहते थे, इसलिये अस्नान की स्वास्थ्य सम्बन्धी हानियाँ न खटकती थीं, परन्तु आज वे लटकती है । मलिनता से कृमि आदि पैदा होते हैं, दुर्गंध पैदा होती है जो अपने को और दूसरों को निरर्थक कष्ट देती है, इसलिये स्नान करना आवश्यक है । दंतवन तो और भी अधिक आवश्यक है । अगर पशु की तरह रूक्ष आहार लिया जाय, भूख से अधिक न खाया जाय तो यों भी दाँत साफ रह सकते हैं । सम्भवतः इसी आशय को लेकर यह व्रत बनाया गया हो, जिससे लोग दुर्गंध के भय से बहुत कीमती : आहार लेकर समाज पर अधिक बोझ न डाले; परन्तु उसका असली उद्देश्य तो नष्ट हो गया, सिर्फ़ बाहिरी किया बच्ची रही। ड्रोनन करने का व्रत उन्हीं को पालन करना चाहिये जिनके दाँत दान करने पर भी स्वच्छ रह सकते हों । जिनके दाँतों में स्वच्छता नहीं रह पाती, दुर्गंध आती है, उनको दाँत साफ करना ही चाहिये ।
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कहा जाता है कि दाँत साफ़ करने से दाँतों के कीड़े मरते हैं। यदि ऐसा है तब तो दाँत अवश्य साफ करना चाहिये अन्यथा दाँतों के कीड़े धीरे धीरे इतनी अधिक संख्या में वहाँ अड्डा जमा लेंगे कि थोड़ी-सी भी हरकत से वे मरेंगे, हिंसा किये बिना दाँतों को
हिलाना भी मुश्किल होगा। इसलिये यह अच्छा है कि निरन्तर
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