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[जैनधर्म-मीमांसा उद्दिष्टत्याग अनिवार्य नहीं है।
__भोजन के विषय में और भी बहुत से नियम हैं जैसे अमुक चीज़ को देखकर भोजन नहीं लेना आदि; परन्तु इन सबका उद्देश यही था कि जिससे मनुष्य सहृदय बना रहे । कोई मनुष्य रो रहा हो और साधु भोजन करे तो इससे कुछ खार्थपरता या निर्दयता मालूम होती है, अथवा किसी भक्ष्य-पदार्थ में मांस आदि का संकल्प हो जाय और फिर भी उसे खाया जाय तो इससे अभक्ष्य से ग्लानि घट जाती है । साधक अवस्था में इन मनोवृत्तियों को बनाये रखने की आवश्यकता होती है, परन्तु इन अन्तरायों के होने पर भोजन का छूट जाना एक बात है और छोड़ देना दूसरी बात । बहुत से लोगों को ग्लानि तो होती नहीं है, परन्तु दिखाने के लिये छोड़ देते हैं, तथा दूसरे लोगों पर बिगड़ पड़ते हैं । इस प्रकार की कृत्रिमता अनावश्यक है। स्वच्छता के नियमों का पालन करना तथा हिंसा
आदि से बचे रहना उचित है; परन्तु कुत्ते के भौंकने से और बिल्ली के बोलने से अन्तराय मानना, छोटे छोटे बहाने निकालकर मोजन छोड़कर भोजन करानेवाले को लजित करना उचित नहीं है। भोजन तभी छोड़ना चाहिये जब स्वभाव से इतनी ग्लानि आ जाय कि भोजन न किया जाय । इस विषय में नियम बनाना या अन्तरायों की संख्या गिनाना अनावश्यक है।
एषणा-समिति पर विचार करते समय सचित्ताचित्त पर विचार करना भी आवश्यक है । मांस वगैरह त्रस-हिंसाजन्य पदाथों का त्याग करना आवश्यक है । परन्तु जैन-समाज में वनस्पति के