________________
मुनिसंस्था के नियम]
[१९५ । समाज का बोझ कुछ हलका कर दिया है, वहाँ साधु को भोजन के विषय में स्वतन्त्रता देकर निरंकुश भी बना दिया है । इससे समाज का दबाव उसके सिर पर न रहेगा, वह किसी तरह पैसा पैदा कर समाज के विरोध में भी खड़ा हो सकेगा।
उत्तर-जिस समय समाज में उसके पक्ष का एक भी आदमी न रह जायगा, उस समय वह साधु कहलाकर रह भी नहीं सकता। वह साधु-संस्था से अलग कर दिया जा सकेगा । उस समय उसके लिये भोजन का चौथा मार्ग ही रह जायगा । वह मार्ग तो अवश्य खुला रहना चाहिये, नहीं तो वह चोर और डकैतों में शामिल हो जायगा । समाज ने उसे साधु नहीं माना, बस यही क्या कम दंड है ! यदि उसके पक्ष में कुछ लोग हैं तब तो उद्दिष्ट त्यागी होकर के भी वह 'तागडधिन्ना' कर सकेगा; क्योंकि उसके भक्त उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे । सच बात तो यह है कि सबसे कठिन मार्ग अपने परिश्रम से पैदा करके खाना है । थोड़ी-सी गड़. बड़ी होने पर इसी चौथे मार्ग का सहारा लेना पड़ेगा और इसमें उसकी पूरी कसौटी हो जायगी । इस विषय में एक बात और है कि कोई आदमी साधु कहलाता रहे और साधुता का पालन न करे तो भी वह आज के समान भयंकर न होगा; क्योंकि समाज के ऊपर उसके पोषण का बोझ न रहेगा और आजकल साधु-वेष धारण करने से ही लोग जिस प्रकार सातवें आसमान पर चढ़ जाते हैं, दूसरों से पूजा कराना अपना हक समझते हैं, वह बात पीछे न रहेगी । उस समय तो गुण और समाज-सेवा के अनुसार ही उपचार बिनय का पालन होगा, वेष के अनुसार नहीं । इस प्रकार