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मुनिसंस्था के नियम
[२०३ ही नहीं कह सकते । कदाचित् दंभी तक कह सकते हैं, इसलिये अगर त्याग करने की आवश्यकता मालूम हो तो संख्या की मर्यादा बाँध लेना चाहिये, और वह भी सिर्फ इसीलिये कि दूसरों को कष्ट न हो । इन बातों से अपने को त्यागी न समझ लेना चाहिये, स्योंकि इनका मूल्य बहुत तुच्छ है ।
खाने-पीने की बात को लेकर लोग त्याग का दंभ बहुत करते हैं, इसलिये इस विषय में कुछ अधिक लिखा गया है, परन्तु इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में भी विचार करना चाहिये । मुख्य बात यह है कि किसी भी इन्द्रिय के विषय में आसक्ति न हो । कोई भी विषय प्राप्त हो या न हो, परन्तु प्रसन्नता बनी रहे। 'आसक्ति कर्तव्य में बाधक न हो'-इसका नाम इन्द्रिय-विजय है, साधु के लिये यह आवश्यक है । अस्वाद-व्रत भी इसी के अन्तर्गत है। परन्तु पाँच इन्द्रियों के विजय को पाँच मल-गुण कहना अनावश्यक है । इस प्रकार के विस्त.र की आवश्यकता नहीं है । इसलिये पाँच के बदले इन्द्रिय-विजय नामक एक ही मूल-गुण रखना चाहिये।
आवश्यक-दिगम्बर सम्प्रदाय में छः आवश्यक के नाम से छः कार्य* प्रसिद्ध हैं। १ सामायिक, २ चतुर्विंशतिस्तव, ३ वंदना, ४ प्रतिक्रमण, ५ प्रत्याख्यान, ६ कायोत्सर्ग । कहीं
* समदा थओ य वदण पाडिकमणं तहेव णादन्छ । पञ्चक्खाण विसग्गो करणीया वासया छब्धि-मूलाचार २२ ।