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[जैनधर्म मीमांसा प्रश्न-ज्ञानयुक्तता को अगर आप मूल-गुण बना देंगे तब , तो पंडितों के सिवाय दुसरा कोई साधु-संस्था में प्रवेश न कर पायगा। इस प्रकार तो आप अल्पज्ञानियों से एक प्रकार से साधुता छीन रहे हैं । हम नहीं समझते कि कोई सेवा-भावी सजन निःस्वार्थ भाव से समाज की सेवा करना चाहता हो तो अधिक ज्ञानी न होने से ही उसकी सेवा अस्वीकार क्यों कर दी जाय ?
उत्तर-ज्ञानी होने के लिये पंडित होना आवश्यक नहीं है। वह मातृभाषा में अपने विचार प्रकट कर सके, तथा तत्व को समझ सके, इतना ही आवश्यक है । दूसरी बात यह है कि बाबज्ञान का माध्यम सदा सर्वत्र एक सा नहीं रक्खा जा सकता। एक जमाने में जितने ज्ञान से लोग पंडित कहलाते हैं दूसरे जमाने में उतने ज्ञान से गणनीय विद्यार्थी भी नहीं कहलाते । इसलिये उस समय साधु-संस्था में प्रवेश करने के लिये ज्ञान का जो माध्यम रक्खा जा सकता था, उतना आज नहीं रक्खा जा सकता । समाज की सेवा करने के लिये साधारण समाज से कुछ विशेष ज्ञान होना आवश्यक है, भले ही वह बड़ा पंडित न हो । हाँ, साधु-संस्था में पदाधिकारी होने के लिये विशेष विद्वान होना भी अनिवार्य है । तात्पर्य यह है कि साधु-संस्था के सभ्य को इतना ज्ञान अवश्य रखना चाहिये जिससे लोगों पर उसका कुछ प्रभाव पड़ सके तथा सेवा और आत्मोद्धार के कार्य में सुविधा हो । तीसरी बात यह है कि यह साधु-संस्था में प्रविष्ट होने की शर्त है, साधुता की शर्त नहीं । साधुता और साधु-संस्था की सदस्यता में अन्तर है।
इस प्रकार स्वाध्याय नहीं, किन्तु ज्ञानयुक्तता साधु-संस्था के