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मुनिसंस्था के नियम ]
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वश
जो मनुष्य अहिंसा, सत्य आदि का पालन नहीं करता, इंद्रियों को में नहीं रखता, समभाव नहीं रखता, वह लोक-सेवा क्या करेगा ? लोक सेवा के बहाने वह दु:स्वार्थ साधना तथा अनेक अनर्थ ही करेगा । प्रतिक्रमण तो लोक-सेवा में अत्यावश्यक है, क्यों कि जब तक वह अपनी भूलों को न देखेगा तब तक वह सेवा के बदले में अनेवा ही अधिक करेगा । प्रतिक्रमण स्वयं भी एक लोकसेवा है ।
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प्रश्न- यदि आप अन्य मूल-गुणों को लोक सेवा के लिये इतना आवश्यक समझते हैं तो क्या ज्ञान आवश्यक नहीं है ? बिना ज्ञान के वह सेवा असेवा का तत्व क्या समझेगा ? संयम के लिये ज्ञान तो अनिवार्य है, इसलिये उसे मूल-गुण में रखना चाहिये ।
में मूल-गुण है | परन्तु स्वध्याय और मनुष्य ज्ञानी है, वह अगर स्वाध्याय सकता है । परन्तु जो ज्ञानी नहीं है
उत्तर - ज्ञानयुक्तता अर्थात् संयम तथा लोक-सेवा के लिये जितने ज्ञान की आवश्यकता है उतना ज्ञान धारण करना वास्तव ज्ञानयुक्तता में अन्तर हैं । जो नहीं करता तो भी साधु रह किन्तु स्वाध्याय से ज्ञानी बनना तक ज्ञानी न
चाहता है, वह तब तक साधु नहीं बन सकता जब हो जावे | स्वाध्याय से ज्ञानी बन ज्ञानी न बन जाय तब तक उसे
जब तक वह
सकता है, परन्तु साधु-संस्था का
उम्मेदवार ही
रहना चाहिये | साधु-संस्था में प्रवेश पाने के लिये आवश्यक शर्त है, अन्यथा अनेक निरक्षर भट्टाचार्य प्रभावहीन बना देंगे |
ज्ञानयुक्तता एक साधु-संस्था को