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मुनिसंस्था के नियम ]
[२०९ अपमान दुःख आदि का कारण हो जाता है। यह साधारण उदाहरण जीवन के प्रत्येक कार्य में मूर्तिमान रूप में दिखाई देता है । व्यवहार में जो अनेक प्रकार की शत्रुताओं का अस्तित्व पाया जाता है, वह सिर्फ इतनी ही बात से दूर हो सकता है कि हम अपनी गलती सच्चे दिल से स्वीकार कर लें । मानव-हृदय ही नहीं, प्राणि-हृदय प्रेम का भूखा है । प्रतिक्रमण से यही प्रेम प्रगट होता है, इसलिये प्रतिक्रमण अत्यावश्यक है।
___ यहाँ जिन आवश्यकों का वर्णन किया जाता है उनके स्थान में यह प्रतिक्रमण ही रक्खा जाना चाहिये । बाकी आवश्वको में जो उपादेय तत्त्व हैं, वे भी इसी के भीतर डाले जा सकते हैं। स्तुति, वन्दना, प्रत्याख्यान आदि प्रतिक्रमण की भूमिका मात्र हैं । इसलिये साधु के लिये प्रतिक्रमण मूल-गुण में रखना उचित है।
यह बात पहिले भी कही जा चुकी है कि संयम को नियम से नहीं बाँधा जा सकता, इसलिये प्रतिक्रमण भी नियमों से नहीं बाँधा जा सकता ! प्रतिक्रमण का क्या लक्ष्य है, इस बात को समझकर, हानि लाभ को तौलकर शुद्ध अन्तः करण से इसका पालन करना चाहिये । इसलिये कहाँ, कब, किसके साथ, कैसा प्रविक्रमण करना चाहिये यह सब विचारणीय है, परंतु ध्येय की तरफ़ दृष्टि लगाकर अगर इसका पालन किया जाय तो प्रतिक्रमण सम्बन्धी अनेक समस्याएँ हल हो सकती हैं।
____ पाँचवा आवश्यक प्रत्याख्यान है । भविष्य के लिये अयोग्य का। का त्याग करना प्रत्याख्यान है। वास्तव में यह प्रतिक्रमण